स्थानीय स्वशासन | Sthaniya Swashasan – महत्वपूर्ण तथ्य

स्थानीय स्वशासन शासन की वह प्रणाली है जिसमें निचले स्तर पर लोगों को भागीदारी बनाकर लोकतांतिक विकेन्द्रीकरण को सुनिश्चित किया जाता है। तथा लोगों को अपनी समस्याओं को हल करने के लिए सक्षम बनाया जाता है। 1864 में भारत सरकार ने एक प्रस्ताव के द्वारा स्थानीय स्वशासन को मान्यता दी। तथा 1882 ई० में पंचायतों को कार्यात्मक व वित्तीय स्वायत्ता प्रदान किया।

 

स्थानीय स्वशासन (Local Self – Government )

इसका अभिप्राय ऐसे शासन से है जो कि स्थानीय जनता के द्वारा आपसी हितों कि पूर्ती के लिए सहभागिता के माध्यम से किया जाता है। लार्ड रिपन को स्थानीय स्वशासन का जनक माना जाता है। 1919 के भारत शासन अधिनियम में सर्वप्रथम स्थानीय स्वशासन को मान्यता प्रदान की गई तथा वर्तमान में यह राज्य सूची का विषय है।

स्थानीय स्वशासन के भाग

स्थानीय स्वशासन के दो भाग होते हैं-

  • पंचायती राज
  • नगरीय शासन

पंचायती राज

भारतीय संविधान के भाग-4 में नीति निर्देशक तत्वों के अनुच्छेद 40 में राज्यों को ग्राम पंचायतों के गठन का दिशा-निर्देश जारी किया गया है। 2 अक्टूबर 1952 को भारत सरकार के द्वारा सामुदायिक विकास कार्यक्रम की शुरुआत की गई परन्तु यह कार्यक्रम असफल हो गया।

बलवन्त राय मेहता समिति (1957)

सामुदायिक विकास कार्यक्रम की असफलता की समीक्षा के लिए 1957 में बलवन्त राय मेहता समिति का गठन किया गया।बलवन्त राय मेहता समिति ने लोकतांत्रिक विकेद्रीकरण की सिफारिस की तथा इसे सुनिश्चित करने के लिए त्रि-स्तरीय पंचायती राज के गठन की सिफारिश की।

  1. ग्राम स्तर पर – ग्राम पंचायत
  2. खण्ड स्तर पर – पंचायत समिति
  3. जिला स्तर पर – जिला परिषद

बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशों को लागू करने के लिए 2 अक्टूबर 1959 को राजस्थान के नागौर जिले में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के द्वारा पंचायती राज का उ‌द्घाटन किया गया । इसी के साथ राजस्थय प्रथम राज्य बना जहाँ पर पंचायती राज को लागू किया गया तथा इसके पश्चात 11 अक्टूबर को आंध्रप्रदेश में पंचायती राज लागू करने वाला भारत का दूसरा राज्य बना।

 अशोक मेहता समिति (1977)

जनता पार्टी सरकार के द्वारा पंचायती राज संस्थाओं को मजबूत करने की दिशा में अशोक मेहता समिति का गठन किया गया। जिसने निम्न सिफारिशे प्रस्तुत की-

  • पंचायती राज संस्थाओं का गठन दो स्तर पर किया जाए
  1. जिला परिषद
  2. मंडल पंचायत
  • इन्होंने पंचायती राज संस्थाओं में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण की सिफारिश की।
  • इसके द्वारा पंचायती राज संस्थाओं के निर्वाचन में राजनीतिक दलों की सहभागिता की सिफारिश की गई।

पी॰वी॰के॰ राव समिति (1985)

1985 में योजना आयोग के द्वारा पी॰वी॰के॰ राव समिति का गठन किया गया जिसने चार स्तर पर पंचायती राज संस्थाओं के गठन की सिफारित की। इनके द्वारा पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल आठ वर्ष करने की अनुशंसा की गई। इस समिति ने राज्य स्तर पर राज्य विकास परिषद, जिला स्तर पर जिला परिषद, मण्डल स्तर पर मंडल पंचायत तथा गांव स्तर पर गाँव सभा के गठन की सिफारिस करते हुए जिला परिषद् को सर्वाधिक महत्व दिया ।

लक्ष्मीमल सिंधवी समिति (1986)

इन्होने पंचायती राज संथाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान करने के लिए ग्राम सभा की स्थापना करने, पंचायतों के नियमित चुनाव कराने, पंचायतों को शासन का तीसरा स्तर घोषित करने की सिफारिश की।

1988 में गठित थुंगन समिति तथा गाडगिल समिति ने भी पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान करने एवं उन्हें वित्तीय संसाधन प्रदान करने की अनुसंशा की।


पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान करने के लिए राजीव गांधी सरकार के द्वारा 64 वां संशोधन विधयक संसद में रखा गया, विधेयक राज्यसभा से पारित नहीं हो सका। परिणाम स्वरूप समाप्त हो गया।


73वां संशोधन अधिनियम, 1992

73वें संविधान संशोधन अधिनियम 1992 के पारित होने से देश के संघीय लोकतान्त्रिक ढाँचे में एक नये युग का सूत्रपात हुआ व और पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्राप्त हुआ। इस संविधान संशोधन द्वारा संविधान में भाग-9 को पुनः स्थापित कर 16 नये अनुच्छेद (अनु. 243 से अनु. 2430 तक) और 11वीं अनुसूची जोड़ी गयी। 11वीं अनुसूची में कुल 29 विषयों का उल्लेख है।

इस संशोधन की प्रमुख विशेषताएं-

  • इसके माध्यम से पंचायती राज संस्थाओं को तीन स्तर पर संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई। 
  1. ग्राम स्तर पर – ग्राम पंचायत
  2. खंड स्तर पर – पंचायत समिति
  3. जिला स्तर – जिला परिषद
  • इस संशोधन के माध्यम से ग्राम सभा को वैधानिक मान्यता प्रदान की गई। ग्राम सभा में एक पंचायत क्षेत्र के ऐसे सभी वयस्क मतदाता शामिल होते हैं जिनका नाम मतदाता सूची में अंकित होता है। ग्राम सभा राज्य विधानमण्डल के द्वारा निर्धारित शक्तियों का प्रयोग करेगी।
  • इस संशोधन के माध्यम से पंचायती राज संस्थाओं की संरचना का निर्धारण करने की शक्ति राज्य विधानमण्डल को प्रदान की गई। पंचायती राज संस्थाओं में तीनो स्तर पर सदस्यों का चुनाव जनता के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुना जाएगा। मध्यवती स्तर (पंचायत समिति) एवं उच्चस्तर (जिला परिषद्) पर अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष का चुनाव जनता के द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से किया जाएगा एवं प्रथम स्तर (ग्राम पंचायत) पर अध्यक्ष के चुनाव की रीति का निर्धारण राज्य विधानमंडल के द्वारा दिया जाएगा।
  • पंचायती राज संस्थाओं में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में सीटें आरक्षित की गई तथा महिलाओं के लिए 1/3 सीटों का आरक्षण का उपबन्ध किया गया।
  • पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल प्रथम अधिवेशन की तीथि से पांच वर्ष तक निधारित किया गया। तथा यदि इस बीच पंचायत विघटित हो जाती है या शेष कार्यकाल 6 माह से अधिक का बचा है, तो अगली पंचायत का गठन केवल शेष कार्यकाल के लिए होगा।
  • पंचायती राज संस्थाओं को कर लगाने तथा सामाजिक न्याय एवं आर्थिक विकास के लिए योजनाएं बनाने का अधिकार प्रदान किया गया।
  • पंचायती राज संस्थाओं की वित्तीय स्थिति की समीक्षा के लिए तथा उन्हे राज्य की संचित निधि से अनुदान प्रदान करने के लिए राज्य वित्त आयोग को मान्यता प्रदान की गई जिसका गठन प्रत्येक पांच वर्ष पर राज्यपाल के द्वारा किया जाएगा।
  • पंचायती राज संस्थाओं के समस्त चुनाओं का मतदान करने तथा उनकी मतदाता सूची का निर्माण करने के लिए राज्य निर्वाचन आयोग की मान्यता प्रदान की गई।
  • पंचायती राज सम्बन्धी प्रावधान मिज़ोरम, मेघालय, नागालैण्ड, मणिपुर के पर्वतीय प्रदेश, पं. बंगाल के गोरखण्ड क्षेत्र एवं अनुसूचित क्षेत्रों में लागू नहीं होगें। परन्तु संसद कानून के माध्यम से पंचायती राज से सम्बंधित प्रावधानों को अनुसूचित क्षेत्र में लागू करा सकती ही इस संबंध में संसद के द्वारा दिलीप सिंह भूरिया समिति की सिफारिशों पर 1996 में पेसा [ पंचायती राज अनुसूचित क्षेत्र विस्तार अधिनियम ] कानून का निर्माण किया गया है।

नगरीय शासन

नगरीय शासक का संचालन नगर निगम, नगर परिषद, नगरपालिकाओं के माध्यम से किया जाता है। सर्वप्रथम 1687 में मद्रास में नगरीय शासन की शुरुआत अभियक्ति होती है जहां पर नगर निगम की स्थापना की गई थी।

स्वतंत्रा के पश्चात नगरीय संस्थाओं के मान्यता प्रदान करने के लिए राजीव गांधी सरकार के द्वारा 65 वां संशोधन विधेयक 1989 में संसद में रखा गया परन्तु विधेयक राज्यसभा से पारित नहीं हो सका इसी लिए समाप्त हो गया ।

74वां संशोधन अधिनियम ,1992

74वें संविधान संशोधन द्वारा नगरीय शासन के सम्बन्ध में संवैधानिक प्रावधान किया गया है। ज्ञातव्य हो तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गाँधी ने 1989 में नगरीय निर्वाचक शासन सम्बन्धी प्रावधान के लिए 65वाँ संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया था, किन्तु राज्यसभा द्वारा पारित न होने के कारण इसे कानूनी रूप प्राप्त न हो सका। इस विधेयक में सुधार कर प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिंह राव द्वारा इसे 74वें संविधान संशोधन विधेयक 1992 के रूप में पुनः लोकसभा में प्रस्तुत किया गया। इसे लोकसभा एवं राज्यसभा द्वारा पारित कर दिये जाने पर 20 अप्रैल 1993 को राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृति प्रदान किया गया, तथा 1 जून 1993 से लागू कर दिया

इस अधिनियम द्वारा संविधान में एक नया भाग-9 (क) तथा 243 (p) से 243 (ZG) तक 18 नये अनुच्छेद एवं एक नयी अनुसूची (12वीं अनुसूची) जोड़कर नगर प्रशासन के विषय में विस्तृत प्रावधान किया गया है।

 इस संशोधन की प्रमुख विशेषताएं –

इस संशोधन अधिनियम के माध्यम से तीन स्तर पर नगरीय संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई-

  1. नगर निगम – बड़े नगरो के लिए।
  2. नगर परिषद – छोटे नगरो के लिए।
  3. नगर पंचायत- ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में परिवर्तन होने वाले कस्बों के लिए।
  • नगरीय संस्थाओं में प्रत्येक स्तर पर सदस्यों का चुनाव जनता के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाएगा।
  • ऐसे नगरीय क्षेत्र जिनकी जनसंख्या तीन लाख से अधिक है, वहां पर वार्ड समिति का गठन किया जाएगा। वार्ड समिति की संरचना, उसके सदस्यों के चुनाव की प्रक्रिया आदि का निर्धारण राज्य विधानमण्डल के द्वारा किया जाएगा।
  • नगरीय संस्थाओं में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण प्रदान किया गया एवं महिलाओं के लिए 1/3 सीटें आरक्षित की गई।
  • नगरीय संस्थाओं का कार्यकाल प्रथम अधिवेशन की तिथि से पांच वर्ष तक निर्धारित किया गया एवं यदि इस बीच नगरपालिका का विघटन हो जाता है तथा शेष कार्यकाल 6 माह से अधिक का है तो अगली नगरपालिका का गठन केवल शेष कार्यकाल के लिए किया जाएगा।
  • नगरीय संस्थाओं को कर लगाने तथा सामाजिक न्याय एवं आर्थिक विकास के लिए योजनाएं बनाने का अधिकार प्रदान किया गया।
  • नगरीय संस्थाओं की वित्तीय स्थिति की समीक्षा के लिए तथा उन्हें राज्य की संचित निधि से अनुदान प्रदान करने के लिए राज्य वित्त आयोग को मान्यता प्रदान की गई जिसका गठन राज्यपाल के द्वारा प्रत्येक पांच वर्ष पर किया जाएगा।
  • नगरीय संस्थाओं के समस्त चुनाओं का सम्पादन करने तथा उनका निरिक्षण एवं नियंत्रण करने के लिए तथा मतदाता सूची का निर्माण करने के लिए राज्य निर्वाचन आयोग को मान्यता प्रदान की गयी। जिसकी नियुक्ति राज्यपाल के द्वारा की जाएगी।
  • जिला योजना समिति (अनु॰ 243 ZD) इस संशोधन (74वां संशोधन1992) के माध्यम से जिला योजना समिति को मान्यता प्रदान की गई जो कि प्रत्येक जिले में गठित की जाएगी एवं पंचायतों तथा नगर पालिकाओं के द्वारा तैयार योजनाओं को संगठित करेगी तथा विकास के प्रारूप का निर्धारण करेगी।
  • महानगर योजना समिति (अनु॰ 243 ZE ) इस संशोधन (74वां संशोधन1992) के माध्यम से महानगर योजना समिति को मान्यता प्रदान की गई जो कि महानगरों के विकास के लिए प्रारूप का निर्माण करेगी।

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